क्या जारी निर्वाचन प्रक्रिया संवैधानिक और निष्पक्ष है ?

राजनीतिक पार्टियों, चुनावी प्रत्याशियों, सर्वे एजेंसियों का मतदाता के मानस पर अवैध अतिक्रमण ….!

इंदौर

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21 वीं सदी के प्रारम्भ से ही डिजिटल टेक्नोलोजी का भारतीय सियासत में असरकारक प्रभाव शुरू हो गया था। पहले एक दशक को डिजिटल माध्यम केवल संवाद (communication) के व्यापक औज़ार के रूप में ही उभर कर सामने आया था लेकिन 21 वीं सदी के दूसरे दशक के मध्य में इंटरनेट आधारित सोशल मीडिया प्लेटफार्म ने अपनी अपनी राजनीति चमकाने के लिये यहाँ भ्रम का , झूठ का अपने मुफीद सच का एक मकड़जाल बुनना शुरू कर दिया था। हम मध्य प्रदेश में बीते दो विधान सभाओं और दो लोक सभा चुनावों में इसका प्रतिकूल असर देख चुके हैं अब जबकि हम 21 वीं सदी के तीसरे दशक में मध्य प्रदेश में होने वाले पहले विधान सभा चुनाव के प्रचार-प्रसार के अंतिम चरण के दौर में हैं, तब यहाँ प्रचार प्रसार माध्यमों के  बढ़ते कदम की समीक्षात्मक तुलना करने पर बेहद चिंतनीय परिणाम सामने हैं।

अब जब पारंपरिक एनालॉग और डिजिटल केबल से आगे फाइबर 5 जी इंटरनेट बेस्ड स्मार्ट टीवी शहरी नागरिकों के परिवारों का तेजी से हिस्सा बन रही है। इसके साथ ही एंडरोइड फोन क्रान्ति ने तो व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी जैसी दूषित मानसिक खुराक के लिये कुख्यात माध्यम को एक तरह से स्वीकार ही कर लिया है। चौक-चौपालों पर चुनावी मौसम में होने वाली आम चर्चाएं पूरी तरह से विलुप्त होती जा रही है। जन सरोकार से जुड़े मुद्दे, सूचनाएँ आम नागरिकों तक पहुँच नहीं पाये, इसके बीच आज टीवी मीडिया और अखबार सबसे बड़ी दीवार बनकर खड़े हैं। जनता के लिये जैसे मूलभूत सिद्धांतों से हटकर सरकार के लिए, ताकतवर के लिए , लाभ के लिए  जैसे व्यावसायिक, व्यापारिक, वाणिज्यिक  हित साधना ही मुख्य धारा की मीडिया का मूल उद्देश्य और सिद्धान्त रह गया है।

इस बार मतदाता के मानस पर अतिक्रमण का वह दौर देखा है जब दिनभर में 4 से 5 मतदाता को राजनीतिक पार्टियों के मशीनी फोन काल , बल्क मैसेज और इससे चार कदम आगे अब तो ‘किसको वोट दे रहे हैं,’ यह तक जानने के अवैधानिक प्रयास सार्वजनिक रूप से बदस्तूर जारी हैं। इंटरनेट मीडिया के माध्यम से निशुल्क और सामान्य न्यूनतम शुल्क पर मुहैया कराये जा रहे दृश्य और श्रवण माध्यमों पर राजनीतिक पार्टियों का जैसे पूरी तरह कब्जा ही हो गया है । मसलन उदाहरण के लिये जियो फाइबर पर मिलने वाले जियो सिनेमा विकल्प पर मौजूद फिल्म के बीच भाजपा के ‘एमपी के मन में है मोदी’ , ‘ एमपी की महिलाओं के मन में है मोदी’ जैसे भाजपा के पक्ष में प्रचारित, प्रसारित, सुनियोजित विज्ञापनों की एक वृहद श्रंखला नागरिकों पर थोपी जा रही है ।  ऐसे विज्ञापनों को paid मनोरंजन सेवा विकल्पों की सामग्री के बीच थोपा जाना सही है ? क्या निर्वाचन आयोग और तमाम संवैधानिक संस्थाओं की नजर में ये सत्ता शक्ति का दुरुपयोग नहीं है ? आपको  बता दें इन विज्ञापनों का अतिक्रमण नागरिकों के मानस पर इस कदर है कि उसे न पसंद सामग्री, विज्ञापन को न देखने या skip करने  जैसे आवाश्यक विकल्प भी नहीं दिये जा रहे हैं ! क्या यह स्वस्थ लोकतंत्र में निष्पक्ष चुनाव की परंपरा का निर्वहन है ?  

इसी तरह ‘do not disturb (D&D) ’ जैसे लोक हितैषी उपायों को भी मौजूदा दौर में हाशिये पर धकेल दिया गया है । मसलन उपभोक्ता चाहे या न छाए लेकिन उसे तमाम राजनीतिक पार्टियां हर घंटे- दो घंटे में याद दिला रही है कि उसे अमुक पार्टी को वोट देना है। यदि इस बीच किसी ऐसे फोन काल को आपने आधा-अधूरा सुनकर बीच में ही डिसकनेक्ट कर दिया हो तब आपको वह फोन काल तब तक आता रहेगा जब तक कि आप उनका संदेश पूरा नहीं सुन लेते । कुछ कथित सर्वे कंपनियाँ और मीडिया कंपनियाँ तो इससे चार कदम आगे आपके मन पसंद प्रत्याशी के बारे में खुलासा कर दिये जाने के प्रयास में जुटी हैं। वैकल्पिक रूप से कांग्रेस और भाजपा के प्रत्याशी के बीच डायलर पर 1 या 2 नंबर दबाकर आपके गोपनीय मत की गोपनीयता भंग की जा रही है । ऐसे में सवाल ये है कि मोबाइल धारकों को आने वाले इस तरह के रेंडम phone calls से निर्वाचन अधिकारी, पुलिस अधिकारी, प्रशासनिक जिम्मेदार क्या अनभिज्ञ हैं ? जबकि मुख्य निगरानी कर्ता TRAI (भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण) फिलवक्त निर्वाचन आयोग के आँख और कान के रूप में तैनात हैं ।