छतरपुर के कोतवाली थाना प्रभारी अरविंद कुजूर की आत्महत्या केवल एक व्यक्तिगत त्रासदी नहीं, बल्कि पूरे पुलिस प्रशासन और राजनीतिक तंत्र की उस भयावह सच्चाई का आईना है, जिसमें कर्तव्य से अधिक स्वार्थ की भूमिका नजर आती है। पुलिस बल में अनुशासन और कर्तव्यपरायणता की बातें कितनी भी की जाएं, लेकिन यह घटना बताती है कि सत्ता, अपराध और भ्रष्टाचार का गठजोड़ कितना मजबूत हो चुका है।
एक दबाव, जो नौकरी से अधिक जीवन पर भारी पड़ा
आमतौर पर पुलिसकर्मियों के आत्महत्या करने के पीछे कार्यभार का दबाव या व्यक्तिगत समस्याएं होती हैं, लेकिन अरविंद कुजूर के मामले में कारण कुछ अलग ही थे। उनके ऊपर दबाव जरूर था, मगर यह दबाव अपराधियों और उनके संरक्षकों का था। वे एक ऐसे दलदल में फंस चुके थे, जहां से निकलने का कोई रास्ता नहीं बचा था। छतरपुर में बीते दो वर्षों से पुलिस महकमे के भीतर जो राजनीतिक दखल और सत्ता संरक्षण के खेल चल रहे थे, वे धीरे-धीरे एक विस्फोटक स्थिति में पहुंच चुके थे।
हरिओम शुक्ला हत्याकांड और कमजोर पुलिस कार्रवाई
यह मामला तब शुरू हुआ जब छतरपुर में बीते वर्ष होली के दौरान हरिओम शुक्ला नामक युवक की हत्या हो गई। हत्या के आरोपी अभिषेक परिहार को थाना पुलिस ने पकड़ने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। जब मामला बढ़ा तो तत्कालीन एसपी अगम जैन ने स्वयं इस पर कार्रवाई करते हुए एक टीम गठित की और आरोपी को काठमांडू से गिरफ्तार कराया। मगर जब उसे छतरपुर कोतवाली लाया गया तो उसने वहां वीआईपी ट्रीटमेंट पाया। वह थाने के भीतर बैठकर खीर पी रहा था। यह दृश्य किसी आम नागरिक के लिए भले ही हैरानी का कारण बने, लेकिन पुलिस सिस्टम के लिए यह एक आम बात हो गई थी।
एसपी अगम जैन ने जब खुद अपनी आंखों से यह सब देखा, तो उन्होंने चार पुलिसकर्मियों को लाइन हाजिर कर दिया। लेकिन अरविंद कुजूर और उनकी टीम के राजनीतिक संपर्क इतने मजबूत थे कि 15 दिनों तक किसी को भी रिलीव नहीं किया गया। आखिरकार, जब एसपी ने पुलिस मुख्यालय को पत्र लिखा, तब कहीं जाकर सभी दोषी पुलिसकर्मियों का तबादला हुआ।
इतना ही नहीं, इस पूरे मामले में पुलिस ने इतनी कमजोर चार्जशीट तैयार की कि महज तीन महीनों में ही आरोपी जमानत पर बाहर आ गया। यह पूरी घटना बताती है कि किस तरह एक संगठित नेटवर्क ने अपराध को न्याय पर हावी होने दिया और पुलिस अधिकारी चाहकर भी इसे रोक नहीं सके।
राहुल शुक्ला: सट्टे के किंग का पुलिस संरक्षण
यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती। छतरपुर में सटोरियों का जाल फैलाने वाला राहुल शुक्ला एक ऐसा नाम है, जो पुलिस की शह पर पूरे मध्य प्रदेश में सट्टे का कारोबार चला रहा था।
राहुल शुक्ला ने खुलेआम जेसीबी से एक व्यक्ति का मकान गिरा दिया। एसपी ने उस पर ₹20,000 का इनाम घोषित कर दिया और हाईकोर्ट ने उसकी अग्रिम जमानत अर्जी खारिज कर दी। लेकिन जब वह कोतवाली थाने पहुंचा, तो उसकी धाराएं कमजोर कर दी गईं और उसे वहीं से जमानत मिल गई।
राहुल शुक्ला के खिलाफ छतरपुर और सतना में जुए-सट्टे के कई केस दर्ज थे, लेकिन वह छतरपुर में बैठकर पूरे प्रदेश में अपना नेटवर्क चला रहा था। हैरानी की बात यह थी कि जब अरविंद कुजूर को गोली लगने के बाद अस्पताल ले जाया गया, तो सबसे पहले राहुल शुक्ला वहां पहुंचा था। यह संयोग मात्र नहीं था, बल्कि इस पूरे खेल में उसके शामिल होने का एक और प्रमाण था।
अपराध और सत्ता का गठजोड़: कुजूर का फंसना और अंततः आत्महत्या
सूत्रों की मानें तो अरविंद कुजूर की जिंदगी में ऐसे बदलाव तब आए जब उन्होंने गलत तरीके से पैसे कमाना शुरू कर दिया। उनके छतरपुर स्थित घर पर महिला मित्रों की आवाजाही बढ़ गई थी।
इसी कड़ी में आशी राजा नामक युवती उनके करीब आई और बाद में उसने कुछ निजी वीडियो बना लिए। यह वीडियो उसके लिए ब्लैकमेलिंग का जरिया बन गए। रिपोर्ट्स के मुताबिक, दबाव इतना बढ़ा कि कुजूर को एक महंगी एसयूवी कार तक गिफ्ट करनी पड़ी। लेकिन यह कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। ब्लैकमेलिंग बढ़ती गई, और अंततः जब स्थिति उनके काबू से बाहर हो गई, तो उन्होंने आत्महत्या का रास्ता चुन लिया।
बड़ा सवाल: पुलिस तंत्र की नाकामी या मिलीभगत?
अब सवाल उठता है कि जब एक थाना प्रभारी इतनी उलझनों में फंस चुका था, तो क्या जिले के वरिष्ठ अधिकारियों को इसका अंदाजा नहीं था?
अगर पुलिस महकमा सच में अनुशासित होता, तो यह घटनाएं समय रहते रोकी जा सकती थीं। यह पूरा मामला केवल अरविंद कुजूर तक सीमित नहीं, बल्कि छतरपुर में पुलिस और अपराधियों के गठजोड़ को उजागर करता है।
इस घटना से निकलने वाले कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न:
- क्या पूरा पुलिस महकमा इस खेल को देख रहा था और चुप था?
- क्या पुलिस की आंखों के सामने भ्रष्टाचार इतना हावी हो चुका है कि वे चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते?
- क्या बड़े अधिकारियों की भूमिका भी संदेह के घेरे में नहीं आती?
- अगर समय रहते कार्रवाई की जाती, तो क्या अरविंद कुजूर की जान बच सकती थी?
छतरपुर पुलिस सिस्टम की पुनर्समीक्षा आवश्यक
अरविंद कुजूर की आत्महत्या कोई साधारण घटना नहीं, बल्कि एक बड़े प्रशासनिक और राजनीतिक संकट का संकेत है। यह मामला बताता है कि भ्रष्टाचार और सत्ता संरक्षण के बिना अपराध इतने संगठित नहीं हो सकते।
अब जरूरत है कि इस पूरे मामले की निष्पक्ष जांच हो और दोषियों को सजा मिले। नहीं तो आने वाले समय में यह केवल एक थाना प्रभारी तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि पूरा सिस्टम अपराधियों के इशारों पर नाचता नजर आएगा।
अगर छतरपुर पुलिस और राज्य सरकार इस घटना से कोई सबक नहीं लेती, तो यह एक खतरनाक संकेत है। अरविंद कुजूर की आत्महत्या किसी एक पुलिस अधिकारी की नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम की विफलता का प्रतीक बन चुकी है।