…तो मणिपुर की तरह इन तीन राज्यों को भी आग में झोंकना चाहती है सियासत ?

22 जुलाई 2024

बजट सत्र से तीन दिन पहले देश के शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी, महंगाई जैसे ज्वलंत मुद्दों को टेलीविज़न लील गया है। इन दिनों देश की मुख्य धारा के तमाम न्यूज चैनलों पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के विवादित आदेश के जरिये फिर से हिन्दू-मुस्लिम का खेल शुरू कर दिया गया है। इसकी जद में उत्तराखंड और मध्य प्रदेश भी आ पहुंचा है। उक्त तीनों राज्यों में प्रभावी इस विवादित फैसले से देश के सांप्रदायिक सद्भाव को सीधी चुनौती दी गई थी। दरअसल पवित्र सावन मास के शुरू होने से पहले काँवड़ यात्रियों के मार्ग में पड़ने वाली दुकानों पर दुकान मालिक और कर्मचारियों का नाम लिखा बोर्ड लगाना आवाश्यक कर दिया गया था। पिछले तीन दिन से देश की 60 फीसदी से ज्यादा आवाम का प्रतिनिधित्व करने वाले पक्ष-विपक्ष के जनप्रतिनिधि इस आदेश का खुली और दबी जुवान विरोध कर रहे थे। क्या आप जानते हैं इससे पहले मणिपुर हिंसा के शुरुआती दिनों में भी कमजोर विपक्ष का इसी तरह विरोध सामने आया था। आज जबकि विपक्ष मजबूत है तब भी योगी के इस विवादित फैसले का असरकारक विरोध सामने नहीं आया है। वो तो भला हो टीएमसी नेता महुआ मोइत्रा और सुप्रीम कोर्ट का जिनके दखल और हस्तक्षेप से यह आग भड़कने के पहले फिलवक्त राहत मिली है।

उल्लेखनीय है इससे पहले भी मणिपुर में जारी हिंसा के समाधानकारक प्रश्न को वर्ष 2023 (मानसून सत्र) में उच्च सदन में जरूरी मुद्दा नहीं माना गया था। विपक्ष के नेता डेरेन ओबेरॉय ने दरअसल तब इस मुद्दे पर नियम अनुसार सदन में चर्चा करने की मांग की थी। तत्कालीन और वर्तमान सभापति जगदीप धनगड़ ने उस वक्त मणिपुर में शुरू हो चुके कत्लेआम को जरूरी मुद्दा नहीं मानते हुए इस पर चर्चा से साफ इंकार कर दिया था। इसी तरह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा जारी किए गए हालिया विवादित आदेश को लेकर बहस पूरे देश में छिड़ी हुई है, केवल विपक्ष ही नहीं (इंडिया गठबंधन) सत्ता पक्ष (एनडीए) के अनेक घटक दलों ने भीतरखाने इस आदेश को विवादित बताया है। न केवल मुस्लिम समाज बल्कि अन्य दलित समाज के लिए भी यह आदेश विभाजन और भेद का पर्याय बना हुआ है। इतना विरोध होने के बावजूद भाजपा द्वारा शासित उत्तराखंड और मध्य प्रदेश में भी यह विवादित आदेश लागू कर दिया गया था। आपको बता दें कि इस विवादित आदेश पर भी जब राज्य सभा में नियमानुसार विपक्ष से कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी ने हाल ही में राज्य सभा में चर्चा करने की मांग की, तब इस मांग को भी सभापति ने खारिज कर दिया। एक मणिपुर का नृशंस उदाहरण देखने के बाद भी विवादित सांप्रदायिक आदेशों को लेकर भाजपा का यह रुख संविधान के आर्टिकल 14 ( समानता), आर्टिकल 19 (अभिव्यक्ति), 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता) और अनुच्छेद 29 ( धर्म मान्यताओं से जुड़ी स्वतन्त्रता ) का क्या उल्लंघन नहीं है ? हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस विवादित आदेश की वैधानिकता पर पहली नजर में सवाल खड़े कर दिये हैं। देश की संस्कृति और ताने-बाने को नष्ट करने के लिए इसे ईधन मानते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश पर अन्तरिम रोक लगा दी है।

न्यूजओ2 यह मानता है कि तीसरी सरकार यानि नगर निगम, नगर पालिक निगम, नगर निकाय, ग्राम पंचायतें स्तर पर किसी भी छोटे बड़े दुकानदार को जारी किया जाने वाला गुमास्ता और अचल अस्थायी अनुज्ञा, पंजीयन के लिए ही जब प्रतिष्ठानों पर, दुकानों पर लगे बोर्ड पर दुकान का नाम और प्रोप्राइटर का नाम अंकित किए जाने का बुनियादी (basic) नियम कायदा है, तब इस तरह के नियमों का शक्ति से पालन कराये जाने के वजाय इसके पालन को बहुसंख्यकों के धर्म संप्रदाय से जोड़कर प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिए। इससे न केवल अल्प संख्यक वर्ग खासकर मुस्लिम, वंचित और दलित स्वयं को असुरक्षित महसूस करेगा। इससे समाज में बढ़ती दूरियाँ निश्चित तौर पर मणिपुर जैसा फिर एक काला अध्याय उकेर सकती हैं।

इस नियम के तहत राज्यसभा में की जाती है जरूरी मुद्दों पर चर्चा की मांग

नियम 267 के तहत राज्यसभा सांसद सदन में सूचीबद्ध सभी कार्यों को स्थगित करने तथा देश के समक्ष किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर चर्चा करने के लिए लिखित नोटिस दे सकते हैं।