भारत में जनगणना की परंपरा 1872 से चली आ रही है, जिसे अंग्रेजों ने आरंभ किया था और यह प्रत्येक दस वर्षों में नियमित रूप से आयोजित होती रही है। जनगणना से प्राप्त आंकड़े सरकार को सामाजिक और आर्थिक नीतियों के निर्माण में सहायता करते हैं, जिससे संसाधनों का उचित वितरण सुनिश्चित होता है। यह आंकड़े यह भी इंगित करते हैं कि किन क्षेत्रों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए और किन्हें योजनाओं का लाभ मिला है या नहीं। इसके अलावा, जनसंख्या वृद्धि दर, रोजगार, उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे के विकास के लिए निवेश की दिशा तय करने में भी जनगणना महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
बिना सटीक डेटा के योजनाएं बनाना अंधेरे में तीर चलाने जैसा है। जनगणना ही बताती है कि नीतियों की दिशा किस तरफ होनी चाहिए। अंग्रेजों से लेकर आज तक किसी भी सरकार ने इसे नहीं रोका। दशक के पहले वर्ष में जनगणना एक धार्मिक अनुष्ठान की तरह होती रही, सिवाय 2021 के, जो आज तक नहीं हुई।
कारण क्या है?
भारत के संविधान के अनुसार, संसद की सीटें जनसंख्या के अनुपात में, हर जनगणना के बाद बढ़ाई जानी चाहिए। इंदिरा गांधी ने 42वें संशोधन में इसे होल्ड किया, यह कहते हुए कि देश परिवार नियोजन और जनसंख्या नियंत्रण पर गंभीर प्रयास कर रहा है। ऐसे में जनसंख्या बढ़ने से अधिक सीटें और राजनीतिक ताकत किसी राज्य को मिलने लगे, तो वह भला अपनी जनसंख्या घटाने की कोशिश क्यों करेगा। बल्कि जो जनसंख्या घटाएंगे, वे नुकसान में होंगे। इसलिए 25 साल के लिए, संविधान के उस प्रावधान को होल्ड किया गया।
यह अवधि 2002 में समाप्त हुई। जनसंख्या वृद्धि की दर घटी थी, पर अब भी बहुत काम बाकी था। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में पक्ष-विपक्ष ने मिलकर इसे 25 और वर्षों के लिए मुल्तवी कर दिया। इस बार कहा गया कि 2025 के बाद जो पहली जनगणना होगी, उसके आधार पर, संसद में सीटों का राज्यों के बीच पुनर्वितरण होगा। 2025 के बाद 2031 की जनगणना, यानी 2034 के चुनाव नए परिसीमन के आधार पर होते।
लेकिन यदि 2021 की जनगणना ही अटका दी जाए, 2026 में कराई जाए, तो आप 2027 में ही परिसीमन कर सकते हैं। फिर 2029 अपने हिसाब से बनाई सीटों के आधार पर लड़ सकते हैं। डेढ़ सौ सालों से चली आ रही एक व्यवस्था को, चुनावी चक्र के लिए तोड़ा गया। दूसरी बात, 2021 से 2026 तक बजट, खर्च, योजनाएं, संसाधनों का वितरण, सब कुछ अंधेरे में तीर की तरह चल रहा है। क्या आश्चर्य, कि करते कुछ हैं, होता कुछ है, असर उलट होते हैं।
एक पार्टी के लाभ के लिए संवैधानिक परंपराओं को तोड़ना-मरोड़ना, यह दर्शाता है कि सत्ता में बैठे लोगों का कोई मूल्य प्रणाली नहीं है। इसके अलावा, होने वाले परिसीमन पर निगाह रखी जाए, तो यह लेवल प्लेइंग फील्ड नहीं होगा। यह चतुराई, धूर्तता और शरारतपूर्ण होगा, संविधान की आड़ में होगा।
संघीय ढांचे पर प्रभाव
लेकिन इससे बड़ी चिंता यह है कि राज्यों के हितों में जबरदस्त असंतुलन होगा। तमिलनाडु, केरल, ओडिशा, कर्नाटक, जम्मू-कश्मीर, पंजाब, असम, नॉर्थ ईस्ट की सीटें (अनुपातिक रूप से) घटेंगी। गुजरात, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, हिमाचल लगभग वहीं के वहीं रहेंगे। लेकिन बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश की सीटें बढ़ेंगी। दरअसल, अंतिम चार राज्यों से बहुमत हो जाएगा।
कोई भी फार्मूला लगाएं, ऐसी ही स्थिति बनेगी। जिस तरह से इस सरकार में आंकड़े फर्जीवाड़े होते हैं, 2026 की जनगणना में भी सुविधाजनक हेरफेर होने के पूरे आसार हैं। यह विगत दस वर्षों से चली आ रही आक्रामक राजनीति के बीच, यह एक स्थायी कुचक्र जैसी स्थिति होगी, जिसमें कुछ राज्य सदा के लिए सत्ताधीश बन जाएंगे।
वे ज्यादातर गरीब, प्रवासी, कुंठित, बेरोजगारों के राज्य होंगे। अप्रोडक्टिव, शून्य सिविक सेंस और नफरती राजनीति के गढ़, राजनीतिक ताकत से लैस, नया लंदन होंगे। सुशासित राज्यों से लूटा धन वहां लगेगा। दूसरे राज्य उनकी कॉलोनियां होंगे, सदा के लिए शासित या दोयम दर्जे के हिस्सेदार।
यह बात उन्हें मालूम है। वे चिंतित हैं, पर बेपरवाह सत्ता की सनक, किस तरह के परिणाम लेकर आएगी, यह आपके कल्पना पर छोड़ता हूं। वे अच्छे, सौहार्दपूर्ण हों, इस चमत्कार के लिए भगवान से प्रार्थना करना आवश्यक है।