भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब पर आज सियासत के बादल मंडरा रहे हैं। देश में होली और जुमे का संयोग, चैंपियंस ट्रॉफी की जीत के बाद सांप्रदायिक हिंसा, और ट्रिपल इंजन सरकार के जनप्रतिनिधियों के भड़काऊ बयान यह दिखाते हैं कि समाज को सियासी फायदे के लिए जानबूझकर बांटा जा रहा है। हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि बटेंगे तो कटेंगे, एक हैं तो सेफ हैं जैसे नारे नेताओं की रैलियों और समर्थकों के होठों पर आम हो चुके हैं।
नेताओं की मानसिकता: समाज को बांटने की साजिश?
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का बयान कि “होली साल में एक बार आती है, जुम्मा तो 52 बार होता है”, एक समुदाय को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करता दिखता है। इसी कड़ी में भाजपा मंत्री रघुराज सिंह का कथन कि “रंग से परहेज है तो तिरपाल का हिजाब पहन लो” यह दर्शाता है कि धार्मिक भावनाओं से खेलने का प्रयास किया जा रहा है।
यह सिर्फ एक राज्य की बात नहीं है। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और दिल्ली समेत कई राज्यों में भाजपा के जनप्रतिनिधि “बटेंगे तो कटेंगे, एक हैं तो सेफ हैं” जैसे जहर घोलने वाले नारे लगवा रहे हैं। यह बयानबाज़ी युवाओं के मन में जहर भर रही है, समाज को बांट रही है, और देश की एकता पर हमला कर रही है।
संप्रदायिक घटनाओं के बाद ट्रिपल इंजन सरकार की भूमिका
चैंपियंस ट्रॉफी में भारत की जीत के बाद जब कुछ जगहों पर हिंसा हुई, तो भाजपा नेताओं ने इसे एक साजिश करार दे दिया। बिना किसी निष्पक्ष जांच के अल्पसंख्यक समुदाय को एकतरफा आरोपी ठहराने की होड़ मच गई।
- मध्य प्रदेश में सांप्रदायिक झड़पों के बाद मुख्यमंत्री मोहन यादव ने कहा, “यह कोई सामान्य घटना नहीं, बल्कि एक संगठित साजिश है।”
- बिहार के एक मंत्री ने कहा, “भारत विरोधी मानसिकता रखने वालों को पाकिस्तान भेज देना चाहिए।”
- उत्तर प्रदेश में भी पुलिस की कार्रवाई से पहले ही भाजपा नेताओं ने अपराधियों का धर्म तय कर दिया।
जब सत्ता पक्ष के नेता ऐसे बयान देते हैं, तो यह साफ हो जाता है कि राज्य सरकारें दंगों को काबू करने की बजाय उन्हें राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रही हैं।
मीडिया का गैर-जिम्मेदाराना रवैया
जहां सरकार और नेता समाज को बांटने की कोशिश में जुटे हैं, वहीं मीडिया का एक तबका इस विभाजन को और गहरा करने में भूमिका निभा रहा है।
- मीडिया रिपोर्टिंग में पूर्वाग्रह
- दंगों की रिपोर्टिंग में अल्पसंख्यकों को आरोपी के रूप में पेश किया जाता है, जबकि इस तरह कि घटनाएं में समुदाय की संलिप्तता कि जगह असमाजिक तत्वों की वजह से होती है, जिन्हें आमतौर पर नज़रअंदाज किया जाता है।
- तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया जाता है ताकि एक विशेष समुदाय, अल्पसंख्यको को हिंसा के लिए दोषी ठहराया जा सके।
- धार्मिक स्थलों का नाम लेने पर पाबंदी, लेकिन नफरत पर खुली छूट
- प्रेस काउंसिल और प्रशासनिक गाइडलाइंस के अनुसार, विवादित मामलों में मंदिर-मस्जिद जैसे शब्दों के बजाय धार्मिक स्थल शब्द का उपयोग किया जाना चाहिए। लेकिन टीवी चैनल TRP और एजेंडा रिपोर्टिंग के चलते नियमों की अनदेखी कर रहे हैं।
- “मंदिर-मस्जिद पर हमला”, “मुस्लिमों की साजिश”, “हिंदुओं पर अत्याचार” जैसे भड़काऊ हेडलाइंस लगाकर समाज को बांटने का काम हो रहा है।
- भड़काऊ डिबेट्स और नफरत फैलाने वाले मेहमान
- समाचार चैनलों पर डिबेट्स में ऐसे लोगों को बुलाया जाता है जो खुलेआम सांप्रदायिक टिप्पणियां करते हैं।
- ज़हरीली बहसों का ऐसा माहौल बनाया जाता है कि दर्शकों के मन में नफरत भर जाए।
युवाओं के दिमाग में जहर भरने की राजनीति
जो नफरत आज भाषणों और सोशल मीडिया पोस्ट के जरिए फैलाई जा रही है, उसका असर देश के युवाओं पर साफ दिख रहा है।
- संचार माध्यमों पर परोसी जा रहीं विषेली सामग्री स्कूली बच्चों तक में “एक विशेष समुदाय के लोगों के प्रति नफरत भर रहीं है ।”
- कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में सांप्रदायिक संगठन युवाओं को अपने पक्ष में मोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।
- सोशल मीडिया पर #BoycottXYZ, #RemoveMullahs, #HindutvaSupremacy जैसे ट्रेंड्स चलाए जाते हैं ताकि युवाओं को उकसाया जा सके।
क्या यह वही भारत है, जो कभी ‘विविधता में एकता’ का संदेश देता था?
क्या भारत अपनी गंगा-जमुनी तहज़ीब खो देगा?
आज स्थिति यह हो गई है कि हर त्योहार, हर जीत, हर हार—सब राजनीति का हथियार बन चुके हैं।
- होली में धर्म देखा जा रहा है।
- क्रिकेट में दुश्मन खोजे जा रहे हैं।
- मीडिया में सच को दबाया जा रहा है।
- सरकारें दंगों को वोट बैंक में बदल रही हैं।
गंगा-जमुनी तहज़ीब सिर्फ किताबों में रह जाएगी, अगर समाज ने अपनी आँखें बंद रखीं। अब समय है कि जनता ऐसे नेताओं से सवाल पूछे, मीडिया को ज़िम्मेदारी का एहसास कराए और युवाओं को इस सांप्रदायिक जहर से बचाने की कोशिश करे।
अब भी समय है संभलने का!
अगर समाज अब भी नहीं चेता, तो यह सियासी ज़हर हमें अंदर से खोखला कर देगा। देश को मजबूत बनाने के लिए धर्म नहीं, बल्कि भाईचारे की ज़रूरत है। जब तक जनता भड़काऊ राजनीति को नकारेगी नहीं, तब तक यह आग हमारे घरों तक पहुंचती रहेगी।
क्या हम सच में अपने बच्चों को यह सिखाना चाहते हैं कि “बटेंगे तो कटेंगे”? या फिर हम उन्हें यह सिखाएंगे कि “मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना”?
अब फैसला जनता को करना है—राजनीति की नफरत चुनें या देश की एकता?