तीन नए आपराधिक क़ानूनों को लेकर क्यों मच रहा है शोर ?
इंदौर, 8 जुलाई 2024
केंद्र सरकार ने 1 जुलाई से तीन नए आपराधिक क़ानूनों को प्रभावी कर दिया है। अब भारतीय दंड संहिता 1860 (IPC), भारतीय न्याय संहिता 2023 (BNS) हो गई है, जिसे बीएनएस कहा जाएगा । वहीं भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता 1973 (crpc) , भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 (BNSS) हो गई है और इंडियन एविडेंस एक्ट 1872 , भारतीय साक्ष्य अधिनियम 2023 (BSA) हो गया है । आखिर क्यों इन तीन नए आपराधिक क़ानूनों पर शोर मच रहा है । इन तीन नए क़ानूनों का गैर बीजेपी शासित राज्य तो विरोध कर ही रहे हैं साथ ही मानव अधिकार कार्यकर्ताओं, समाज सेवियों और अधिवक्ता संघों की भी चिंताएँ बढ़ी हुई हैं।
नए कानून भारतीय न्याय संहिता में राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रगान और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अपमान को अपराध नहीं माना जाएगा । कर्नाटक के कानून मंत्री एच.के. पाटिल ने कहा है कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आत्महत्या को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है, जबकि उपवास को अपराध की श्रेणी में डाल दिया गया है। महात्मा गांधी ने उपवास करके सत्याग्रह किया जिससे देश को आज़ादी मिली।
भारतीय न्याय संहिता में आईपीसी 377 को पूरी तरह हटा दिया गया है। इसे लेकर भी कर्नाटक सरकार ने आपत्ति जताई है क्योंकि उनका तर्क है कि कई तरह के अप्राकृतिक सेक्स के लिए इस कानून का इस्तेमाल किया जा रहा था ।
नए कानून में साइबर अपराध, हैकिंग, आर्थिक अपराध, पैसे छिपाना, टैक्स फ्री देशों में पैसे जमा करना, डिजिटली नुकसान करने जैसे अपराध शामिल नहीं किए गए हैं ।
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन ने गृहमंत्री को लिखी अपनी चिट्ठी में लिखा था कि नए कानूनों के क्रियान्वयन में ‘मौलिक गड़बड़ियां’ हैं। जैसे भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की धारा 103 में हत्या के दो अलग-अलग तरीकों के लिए दो उपधाराएं हैं, लेकिन उनकी सज़ा एक ही है।
भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) में कई जगह स्पष्टता नहीं है और कई जगह वो खुद में विरोधाभासी हैं।
पुलिस को किया अधिक पावरफुल, कोर्ट को किया बायपास
इन कानूनों को लेकर जो सबसे बड़ी आपत्ति हैं, वह है पुलिस को और अधिक पावरफुल करना। अब एफआईआर करना है या नहीं, ये पुलिस तय करेगी । बीएनएसएस में पुलिस को एफआईआर दर्ज करने से प्रारंभिक जांच करने के लिए 14 दिन का समय मिलेगा जिससे वो तय कर सके कि प्रथम दृष्टया केस बनता है या नहीं। ये ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बिल्कुल विपरीत है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि शिकायत में संज्ञेय अपराध होने पर एफआईआर दर्ज करना अनिवार्य है। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि ये भी काफ़ी चिंताजनक बात है कि हेड कांस्टेबल तक को ये शक्ति दी गई है कि वो किसी को भी गिरफ़्तार करके किसी को भी ‘आतंकवाद’ के आरोप में अभियुक्त बना सकते है।
दूसरी बड़ी चिंता है पुलिस कस्टडी जिसे 14 दिन से बढ़ाकर 60 से 90 दिन कर दिया गया है। यदि आरोपी निर्दोष है तो भी पुलिस मनमानी करते हुए उसे कई दिन तक कस्टडी में रख सकती है।
तीसरी चिंता यह है कि किसी पुलिस अधिकारी के खिलाफ एफआईआर नहीं होगी। पुलिस अधिकारी की शिकायत उसके सीनियर अधिकारी को करनी होगी, फिर जांच के बाद वह तय करेगा, कि एफआईआर करनी है कि नहीं।