केंद्र सरकार के कर्मचारियों के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में सम्मिलित होने हेतु उच्च न्यायालय के निर्णय के आलोक में याचिकाकर्ता पुरुषोत्तम गुप्ता की प्रेस वार्ता
इंदौर, 26 जुलाई 2024
विश्व संवाद केंद्र मालवा द्वारा आज अर्चना कार्यालय में आयोजित प्रेस वार्ता को संबोधित करते हुए पुरुषोत्तम गुप्ता ने उनके द्वारा इंदौर उच्च न्यायालय में दायर याचिका पर आए महत्वपूर्ण निर्णय पर अपनी भावाभिव्यक्ति में कहा कि मैं सेंट्रल वेयरहाउसिंग कारपोरेशन में इंदौर में ही पदस्थ था । संघ के काम उसकी कार्य पद्धति तथा आपदाओं और देश के संकट के समय संघ के स्वयंसेवकों द्वारा तत्परता पूर्वक निस्वार्थ बुद्धि से किए गए कार्यों से मैं बहुत प्रभावित था। इंदौर की सेवा बस्तियों में संघ की प्रेरणा से सेवा भारती द्वारा किए गए सेवा कार्यों को देखता तो सोचता कि बिना किसी सरकारी सहायता के अपना पैसा व समय लगाकर स्वयंसेवक किस प्रेरणा से कार्य कर पाते हैं?
गुप्ता ने आगे कहा मैं चाह कर भी संघ के काम में खुलकर जुड़ नहीं पाता था, फिर भी मैं समय-समय पर छुप कर कार्यक्रमों में शामिल होता था। किंतु मुझे भय लगा रहता था कि कहीं कोई मेरी शिकायत ना कर दे । मुझ पर कार्यवाही न कर दें। मैंने सुन रखा था कि केन्द्रीय शासकीय कर्मचारियों की सेवा नियमावली में संघ में शामिल होने को लेकर कठोर दंड के प्रावधान हैं। नौकरी तक जाने का खतरा है और अनेक लोगों को इस आधार पर दंडित किया जा चुका है। 1975 की इमरजेंसी में संघ के स्वयंसेवकों पर की गई कार्यवाहियां भी मैंने देखी हैं इसीलिए मैं इस विषय को नौकरी में रहते हुए कहीं उठा नहीं पाया। अब जब मैं सेवानिर्वत्त हो चुका हूं तथा बच्चे भी स्वावलंबी हो गए हैं तो मैंने तय किया कि इस विषय को उठाया जाए ताकि भविष्य में किसी भी कर्मचारी को संघ जैसे पवित्र कार्य से जुड़ने में बाधा उत्पन्न ना हो।
राजनीतिक हल स्थायी नहीं इसलिए ली कोर्ट की शरण
न्यायालय की शरण लेना मैंने इसलिए आवश्यक समझा कि मैं जानता था – “राजनीतिक हल स्थाई नहीं हो सकता। एक सरकार इसे हटा भी दे तो कोई दूसरी सरकार इस नियम को फिर से लगा सकती है। मैं यह भी जानना चाहता था कि इस प्रतिबंध के विषय में भारत का संविधान और कानून क्या कहता है? न्यायालय इस संदर्भ में क्या निर्णय देता है? भारत की न्याय व्यवस्था पर मुझे पूर्ण विश्वास था जो कल के निर्णय से और भी अधिक सुदृढ हो गया है। आपने देखा ही होगा केंद्र सरकार ने जैसे ही न्यायालय में हलफनामा दायर किया कि हमने प्रतिबंधित संगठनों की सूची में से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम हटा लिया है तब अनेक राजनीतिक दलों ने हंगामा मचाया जो लोग संविधान को हाथ में लेकर आज राजनीति कर रहे हैं वे ही इस प्रतिबंध को लगाने के लिए जिम्मेदार थे और आज भी इस प्रतिबंध के पक्ष में हैं। जबकि संविधान ऐसे किसी भी प्रतिबंध को खारिज करता है! इंदौर के उच्च न्यायालय ने अपने कथन में यही कहा है जिन्होंने इस प्रतिबंध को लगाया था उन्होंने इसके पीछे कोई आधार या कोई प्रमाण पिछले 50 वर्ष में कभी प्रस्तुत नहीं किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर ही तीन बार लगे प्रतिबंध निराधार व अन्याय पूर्ण होने के कारण ही बिना शर्त हटाने पड़े। आज तो मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन पर तीन बार लगे प्रतिबंध और शासकीय कर्मचारियों को इसमें भाग लेने से रोकने के प्रावधान सभी दुर्भावना पूर्ण व राजनीति से प्रेरित थे जो देश का हित नहीं चाहते और जन सामान्य को राष्ट्र कार्य में लगने से रोकना चाहते हैं वही लोग इस प्रकार के अन्याय पूर्ण संविधान विरोधी प्रतिबंध लगा सकते हैं।
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याचिकाकर्ता के अधिवक्ता मनीष नायर ने बताया कि न्यायालय ने ये माना है कि आरएसएस कोई राजनैतिक और सांप्रदायिक गतिविधियों को संचालित नहीं करती और न ही कोई राजनैतिक कार्य करती है।
-न्यायालय द्वारा यह माना है कि आरएसएस किसी भी इस प्रकार की गतिविधियों में शामिल नहीं रहा है जो राष्ट्र के हितों के विपरीत हों इसके बावजूद भी 1966 से आरएसएस को प्रतिबंधित ऑर्गेनाइजेशन की सूची में रखा जाना भारतीय संविधान के विपरीत है।
-न्यायालय ने ये भी माना है कि संविधान की अनुच्छेद 14 और 19 को कार्यालयीन आदेशों से नहीं बदला जा सकता अपितु किसी संविधानिक संशोधन से ही इसका प्रारूप बदला जा सकता है और इस कारण पूर्व में केंद्र के कर्मचारियों पर लगा प्रतिबंध पूर्णतः निराधार था।
-सरकार का किसी भी तरह का निर्णय अपितु किसी ठोस आधार और साक्ष्य के आधार पर होना चाहिए जिससे की किसी भी व्यक्ति के मूलभूत संवैधानिक अधिकार को उल्लंघन न हो ।
-यह एक ऐतिहासिक निर्णय है जिसमें अब केंद्र सरकार के अंतर्गत आने वाले सभी कर्मचारियों को उनके कार्यकाल के दौरान आरएसएस के सदस्य बनने और आरएसएस की गतिविधियों में शामिल होने का मौका मिलेगा।
यह प्रतिबंध राज्य शासन के कर्मचारियों पर लागू नहीं था, लेकिन केंद्र शासन के अंतर्गत आने वाले हर कर्मचारी पर लागू था जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के अंतर्गत मूलभूत अधिकारों के हनन के साथ उल्लंघन था।