…तब मनेगी सच्ची गुरु पूर्णिमा
– डॉ. मंगल मिश्र (शिक्षाविद)
संघ के द्वितीय परम पूज्य सरसंघ चालक श्री गुरूजी ने एक अवसर पर कहा था कि – मातृभूमि की भक्ति दो प्रकार की होती है, प्रथम भक्ति प्रतीकात्मक है। इसमें उसकी धूल मस्तक पर लगाना, भारत माता के चित्र की पूजा करना आदि सम्मिलित है, और द्वितीय वास्तविक भक्ति यह है कि मातृभूमि का आदर करना, जो भी मातृभूमि का अनादर करने का प्रयत्न करे, उसे हर प्रकार का दंड देने के लिए तैयार रहना और तब तक शांत नहीं बैठना, जब तक अपराधी को उसकी उद्दंडता का परिणाम न भुगता दिया जाये।
इसी प्रकार गुरु पूर्णिमा के आयोजन दो प्रकार के हो सकते हैं। प्रथम, तो इस अवसर पर गुरु की पूजा करना, हार फूल अर्पण करना, भाषण देना और मिठाई वितरण कर देना। द्वितीय यह कि गुरु, जो कि आज शिक्षक या प्राध्यापक के नाम से जाने जाते हैं , उनकी मूलभूत समस्याओं के निराकरण का हृदय से प्रयत्न करना। मध्य प्रदेश शासन ने पहली बार आदेश जारी किया है कि प्रदेश के महाविद्यालयों में गुरु पूर्णिमा का पर्व आयोजित करना है। सवाल यह है कि यह पर्व केवल प्रतीकात्मक मनेगा या वास्तविक। जैसा कि आम तौर पर होता है, इस दिन शैक्षिणक संस्थाओं में बड़े उच्च स्वर में गुरु की महिमा गाई जाएगी, हार-फूल से गुरु जी का स्वागत होगा और अगले दिन से सब कुछ भुला दिया जायेगा। अगले ही दिन से शिक्षक फिर से ” बेचारे ” शिक्षक के रूप में परिवर्तित हो जायेगा और अपने प्रबंधकों के समक्ष वेतन की भीख मांगता या अपनी छोटी- छोटी समस्याओं के लिए अधिकारियों के सामने गिड़गिड़ाता या अदालत के चक्कर काटता दिखाई देगा।
पूरे देश में केवल शिक्षक ही ऐसा वर्ग है, जिसके लिए न्यूनतम वेतन का कोई नियम नहीं है। मध्य प्रदेश में १९९८ में सरकार ने एक नियम बनाया था कि शिक्षक का वेतन वह होगा जो प्रबंधक तय करे। इस प्रकार निजी शैक्षणिक संस्थाओं के प्रबंधकों को शिक्षक के शोषण की कानूनी छूट और अनुमति दे दी गई। उस समय विपक्ष के विधायकों ने विधान सभा में इस विधेयक की प्रतियां फाड़ी थी, लेकिन सत्ता परिवर्तन के बाद भी इस कानून में कोई सुधार नहीं किया गया। यहाँ तक कि मज़दूर के लिए भी न्यूनतम वेतन तय है, पर शिक्षक के लिए नहीं। श्रम अदालत यह कह देती है कि शिक्षक को श्रमिक नहीं माना गया है, इसलिए वह न्यूनतम वेतन के लिए दावा नहीं कर सकता। यही नहीं, शिक्षक को तो कई स्थानों पर मज़दूर से भी कम वेतन मिलता है और उसमें भी ग्रीष्मावकाश का वेतन काट लिया जाता है। राज्य के प्रशासनिक तंत्र ने गुरूजी, उपगुरुजी, अतिथि विद्वान, तदर्थ, अस्थायी जैसे अनेक शब्द गढ़ कर शिक्षक के आगे लगा दिए हैं। इन सबका उद्देश्य एकमात्र यही है कि शिक्षक को पूरा वेतन न देना पड़े। क्या इस गुरु पूर्णिमा पर ऐसी गुरु पूजा हो पाएगी कि गुरु को अपने वेतन सम्बन्धी मूलभूत समस्या से मुक्ति मिले।
राज्य के शिक्षकों के असंख्य मामले सरकारी फाइलों में दबे पड़े हैं या अदालतों में लंबित है। सरकार अपने सभी कर्मचारियों के लिए सातवां वेतनमान घोषित करती है पर अनेक शिक्षक उससे वंचित रहते हैं। क्या यह आश्वर्जनक नहीं हैं कि आठवां वेतन आयोग बनने की तैयारी और चर्चा चल रही है, पर अनेक शिक्षकों को पांचवा और छटा वेतन ही मिल रहा है। यही नहीं, कई शिक्षकों को तो सेवानिवृत्ति के बाद भी पांचवे वेतन के हिसाब से ही पेंशन मिल रही है। अशासकीय अनुदान रहित शिक्षकों के शोषण की तो कोई सीमा ही नहीं हैं। उनके सर पर आये दिन नौकरी छूटने की तलवार लटकी रहती है। एक अज्ञात भय के वातावरण में कार्य करने के लिए ये शिक्षक विवश हैं। पूरे प्रदेश ही नहीं , अपितु पूरे देश में एक भी ऐसी अशासकीय शिक्षण संस्था नहीं हैं, जो शिक्षकों को शासन के नियमनुसार वेतन देती हो। हाँ, काम लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। लाखों की संख्या में शिक्षक वेतन, पेंशन, भविष्य निधि, ग्रेच्युटी जैसी मूलभूत बातों के लिए परेशान हैं। त्रस्त कुंठित और पीड़ित शिक्षक से विद्यार्थी कल्याण की बात कैसे सोची जा सकती है ?
यह सौभाग्य का विषय है कि प्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री पूर्व में शिक्षा मंत्री रह चुके हैं। उन्होंने शिक्षक भर्ती और शिक्षक कल्याण के कार्य प्रारम्भ किये थे। क्या इस गुरु पूर्णिमा पर हम यह आशा करें कि शासन की ओर से गुरु की वास्तविक पूजा होगी और शिक्षक को कागज़ी आदर सम्मान, मंच के हार-फूल के साथ ही समुचित वेतन, सम्मानजनक सुविधाएँ, लालफीताशाही से मुक्ति, त्वरित न्याय जैसी सुविधाएँ मिल सकेगी ? शिक्षकों के कल्याण और उनकी समस्याओं के निराकरण के लिए एक प्रभावी तंत्र निर्मित होना चाहिए जो समय सीमा में उनकी समस्याओं का निराकरण करे। तभी गुरु पूर्णिमा मानना सार्थक होगा।
(लेखक के विचार निजी हैं)