INDORE: 10 मई: भारत और पाकिस्तान के बीच अचानक हुए सीजफायर की घोषणा के बाद देश की राजनीति में हलचल मच गई है। एक ओर जहां सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘सायरन मैन’ कहा जा रहा है, वहीं देश की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को एक बार फिर ‘आयरन लेडी’ के रूप में याद किया जा रहा है।
इस बीच कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों ने केंद्र सरकार से जवाब तलब किया है। कांग्रेस ने सर्वदलीय बैठक बुलाने की मांग करते हुए यह जानना चाहा है कि प्रधानमंत्री मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच आखिर क्या बातचीत हुई, जिसके बाद यह सीजफायर संभव हुआ।
सीजफायर के मायने क्या हैं?
सीजफायर यानी युद्धविराम। इसका मतलब है कि दोनों देश अपने सैन्य हमलों को रोक दें और बातचीत के ज़रिए समाधान की ओर बढ़ें। लेकिन ऐसे में सवाल यह उठ रहा है कि क्या यह स्थायी शांति की दिशा में एक कदम है या फिर एक अस्थायी राजनीतिक निर्णय?
अमेरिका की भूमिका पर सवाल
सीजफायर की घोषणा के तुरंत बाद अमेरिकी विदेश मंत्रालय की सक्रियता और ट्रंप की कथित भूमिका ने कई राजनीतिक विश्लेषकों को चौंकाया है। क्या अमेरिका ने यह हस्तक्षेप दक्षिण एशिया में अस्थिरता से अपने हितों की रक्षा के लिए किया, या यह मोदी सरकार की कूटनीतिक चाल का हिस्सा था?
चुनावी लाभ की रणनीति?
सीजफायर के समय को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं। चुनावी मौसम में युद्ध जैसी स्थितियों के बाद अचानक शांति की पहल को कई लोग “चुनावी स्टंट” मान रहे हैं। क्या यह जनता की भावनाओं को भड़काकर लाभ लेने की राजनीति थी, जिसमें ना कोई निर्णायक जीत हुई और ना ही कोई स्थायी हल मिला?
पाकिस्तान की आर्थिक मजबूरी या राजनीतिक मजबूरी?
दूसरी ओर, पाकिस्तान की ओर से की गई सैन्य कार्रवाई को वहां की आर्थिक बदहाली और घरेलू असंतोष से जोड़कर देखा जा रहा है। क्या यह हमला जनता के गुस्से को मोड़ने की एक कोशिश थी? और उन निर्दोष लोगों का क्या, जो इस लड़ाई में मारे गए? वे सैनिक जो शहीद हुए?
जनता के मन में सवाल
सीजफायर की घोषणा के साथ ही देशभर में लोगों के मन में सवाल उठ रहे हैं—क्या यह युद्ध जरूरी था? क्या हम कुछ और बेहतर कर सकते थे? क्या शांति की कोशिश पहले नहीं हो सकती थी?
राजनीति, कूटनीति और जनभावनाओं के इस त्रिकोण में सच्चाई कहीं खोती सी दिख रही है। एक तरफ वीरता और बलिदान की कहानियाँ हैं, दूसरी तरफ रणनीति और सियासी गणित। इस सबके बीच जनता को अब जवाब चाहिए—सिर्फ भावनात्मक भाषण नहीं, बल्कि ठोस तथ्य।