न्यायाधीश धीरेन्द्र सिंह की कोर्ट ने जैन समुदाय की 2 दर्जन से अधिक तलाक की याचिकाएं एक साथ की खारिज
इंदौर,11 फरवरी 2025 (न्यूजओ2 डॉट कॉम)/7724038126। इंदौर कुटुंब न्यायालय ने आपसी रजामंदी से जैन दंपत्ति की विवाह- विच्छेद की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए फैसला दिया है कि जैन समुदाय के अनुयायी हिंदू चूंकि अल्पसंख्यक हैं लिहाजा वे विवाह अधिनियम 1955 के तहत विवाह विच्छेद (तलाक) जैसी राहतों के हकदार नहीं हैं। यह फैसला तब आया जब आवेदकगण ने धारा 13-बी हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत विवाह विच्छेद की मांग की थी, लेकिन स्वयं को जैन धर्म का अनुयायी बताया था।
मामले की पृष्ठभूमि
आवेदक क्रमांक 1 शिखा सेठी निवासी नीमच की ओर से अधिवक्ता वर्षा गुप्ता ने पैरवी की और आवेदक क्रमांक 2 नितेश सेठी निवासी इंदौर की ओर से अधिवक्ता पंकज खंडेलवाल ने पैरवी की। अधिवक्ताओं ने तर्क दिया कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 2(1)(ख) के तहत यह अधिनियम उन व्यक्तियों पर भी लागू होता है जो जैन, बौद्ध या सिख धर्म को मानते इसी आधार पर उन्होंने तलाक की अर्जी दी थी।
याची शिखा जैन ने न्यूज ओ2 को बताया कि कुटुंब न्यायालय से उनकी विवाह विच्छेद की याचिका खारिज होने के बाद उन्होने हाई कोर्ट का रुख किया है।
न्यायालय का तर्क
परिवार न्यायालय के प्रथम अतिरिक्त प्रधान न्यायाधीश धीरेन्द्र सिंह ने इस मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि 27 जनवरी 2014 को केंद्र सरकार ने जैन समुदाय को आधिकारिक रूप से अल्पसंख्यक समुदाय घोषित किया था। इस अधिसूचना के बाद जैन धर्म के अनुयायियों को हिंदू विवाह अधिनियम के तहत राहत देना उचित नहीं होगा।
जैन और हिंदू धर्म में अंतर को लेकर चर्चा
न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि हिंदू और जैन धर्म की मूलभूत मान्यताओं में अंतर है। जैन धर्म:
-ब्रह्मांड को शाश्वत मानता है, जबकि हिंदू धर्म में इसे ब्रह्मा द्वारा निर्मित माना जाता है।
-तीर्थंकरों की पूजा करता है, जबकि हिंदू धर्म में देवी-देवताओं की पूजा होती है।
–जाति और वर्ग विभाजन को नहीं मानता, जबकि हिंदू धर्म में जाति व्यवस्था प्रचलित है।
-वेदों को मान्यता नहीं देता, बल्कि अपने “आगम” और “सूत्र” ग्रंथों को पवित्र मानता है।
–विवाह को धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि मात्र सामाजिक परंपरा मानता है, जबकि हिंदू धर्म में इसे एक संस्कार माना गया है।
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व निर्णयों का हवाला
न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट के कई पूर्व निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि जैन धर्म हिंदू धर्म से पूरी तरह अलग है।
बाल पाटिल बनाम भारत संघ (2005) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जैन धर्म हिंदू धर्म से अलग एक स्वतंत्र दर्शन है।
आर्य समाज एजुकेशन ट्रस्ट (1976) केस में यह स्पष्ट किया गया था कि संविधान और हिंदू संहिता, दोनों ही जैन धर्म को अलग धर्म के रूप में मान्यता देते हैं।
गेटप्पा बनाम एरम्मा (1927) केस में मद्रास हाईकोर्ट ने कहा था कि जैन धर्म वेदों की प्रामाणिकता को अस्वीकार करता है।
सूत्रों के मुताबिक न्यायाधीश धीरेन्द्र सिंह ने जैन समुदाय से आने वाली 25 तलाक की याचिकाओं को एक साथ सुना और इस आधार पर सभी को खारिज किया कि जैन अल्पसंख्यक हैं लिहाजा हिन्दू मैरिज एक्ट के तहत उन्हें तलाक का लाभ नहीं दिया जा सकता है।
क्या अब जैन समुदाय के लिए कोई विकल्प नहीं बचा?
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जैन धर्म के अनुयायियों को अपने विवाह संबंधी विवादों के निपटारे के लिए “कुटुंब न्यायालय अधिनियम, 1984” के तहत याचिका दायर करने का अधिकार है। यानी अब जैन समुदाय को हिंदू विवाह अधिनियम के तहत तलाक या अन्य राहत के लिए आवेदन नहीं करना चाहिए, बल्कि कुटुंब न्यायालय में याचिका दाखिल करनी होगी।