लेखक: जितेंद्र सिंह यादव
प्रकाशक: न्यूज़O2
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में दिल्ली में आयोजित NXT कॉन्क्लेव में हिस्सा लिया और संबोधित किया। उन्होंने “न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन” के मंत्र पर जोर देते हुए कहा कि कैसे अंग्रेजो के ज़माने के 1500 पुराने औपनिवेशिक कानूनों को खत्म किया गया।
श्री मोदी ने दावा किया कि उनकी सरकार ने 150 साल पुराने ‘ड्रामेटिक परफॉर्मेंस एक्ट’ को खत्म कर दिया है। उन्होंने यह भी कहा कि इस कानून के तहत यदि किसी शादी में दस से अधिक लोग नाचते दिखते, तो पुलिस दूल्हे समेत सभी को गिरफ्तार कर सकती थी।
यह दावा सरकार की उस रणनीति का हिस्सा है, जिसमें बार-बार कहा जाता रहा है कि आजादी के 75 साल बाद भी अंग्रेजों के बनाए कई काले कानून प्रभावी थे, जिन्हें अब मौजूदा सरकार ने खत्म कर दिया है।
लेकिन क्या सच में ये कानून इतने वर्षों तक प्रभावी थे? क्या स्वतंत्र भारत की संसद और न्यायपालिका इन कानूनों को संविधान के अनुरूप बनाने में विफल रही थी? इस सवाल का जवाब भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 में छिपा है।
अनुच्छेद 13: संविधान के विरुद्ध कानून स्वतः अमान्य
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 (1) से 13 (5) में स्पष्ट उल्लेख है कि संविधान लागू होने (26 जनवरी, 1950) से पहले के सभी कानून, अधिनियम, या विधियाँ, जो मौलिक अधिकारों और संवैधानिक मूल्यों के विरुद्ध हैं, वे स्वतः ही शून्य (void) मानी जाएँगी। इसका सीधा मतलब यह है कि यदि कोई ब्रिटिशकालीन कानून संविधान के मूल सिद्धांतों से टकराता है, तो उसे स्वतः ही निरस्त माना जाएगा।
इसका एक स्पष्ट उदाहरण यह है कि अंग्रेजों द्वारा बनाए गए कई दमनकारी कानूनों की धाराएँ संविधान लागू होते ही निष्प्रभावी हो गईं। कुछ कानूनों में आवश्यक बदलाव किए गए, जबकि कई पूरी तरह खत्म हो गए।
क्या ब्रिटिश कानून अभी भी प्रभावी थे?
सरकार का यह दावा कि “ब्रिटिशकालीन काले कानून अभी तक लागू थे और मोदी सरकार ने इन्हें खत्म किया”, पूरी तरह सही नहीं है।
- संविधान लागू होते ही सभी असंवैधानिक कानून खत्म हो गए
- अनुच्छेद 13 के अनुसार, स्वतंत्रता से पहले बने वे सभी कानून, जो संविधान के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते थे, 1950 में ही निष्प्रभावी हो गए।
- यदि कोई कानून अब भी लागू है, तो इसका मतलब है कि वह संविधान-सम्मत है या समय-समय पर संशोधित किया गया है।
- पुराने कानूनों में संशोधन एक सतत प्रक्रिया है
- भारत की संसद ने 1950 के बाद से कई ब्रिटिशकालीन कानूनों को बदलकर उन्हें संविधान के अनुरूप बनाया।
- भारतीय दंड संहिता, साक्ष्य अधिनियम, पुलिस अधिनियम जैसे कई कानूनों को बार-बार संशोधित किया गया है।
- पुराने कानूनों को खत्म करने का श्रेय सिर्फ एक सरकार को नहीं दिया जा सकता
- 2000 से अधिक अप्रासंगिक कानूनों को अलग-अलग सरकारों ने खत्म किया है।
- 2014 के बाद मोदी सरकार ने 1,500 से अधिक कानून खत्म किए, लेकिन यह प्रक्रिया नई नहीं थी।
- 1950 से लेकर 2014 तक कांग्रेस और अन्य सरकारों ने भी हजारों कानून समाप्त किए या बदले।
क्या ‘ड्रामेटिक परफॉर्मेंस एक्ट’ से बारातियों की गिरफ्तारी हो सकती थी?
प्रधानमंत्री मोदी का यह कहना कि “शादी में 10 से अधिक लोग नाचते तो पुलिस दूल्हे समेत सभी को गिरफ्तार कर सकती थी” एक अतिशयोक्तिपूर्ण बयान है।
- ‘ड्रामेटिक परफॉर्मेंस एक्ट, 1876’ को अंग्रेजों ने राजनीतिक नाटकों और सांस्कृतिक प्रस्तुतियों पर रोक लगाने के लिए लागू किया था।
- यह कानून विशेष रूप से राजनीतिक और असहज करने वाली सांस्कृतिक प्रस्तुतियों को सेंसर करने के लिए था, न कि शादियों और बारातों पर रोक लगाने के लिए।
- यह कानून पहले से निष्क्रिय स्थिति में था, और न्यायपालिका इसे असंवैधानिक मानकर लागू नहीं कर रही थी।
क्या सभी पुराने कानून खत्म करना आवश्यक है?
भारत में आज भी 40,000 से अधिक कानून और अधिनियम प्रभावी हैं। इनमें से कई ब्रिटिशकालीन कानून भी हैं, जिनका संशोधित स्वरूप आज भी उपयोगी है। उदाहरण के लिए:
- भारतीय दंड संहिता, 1860 (हाल ही में बदलकर ‘भारतीय न्याय संहिता’ किया गया)
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872
- संविदा अधिनियम, 1872
इन कानूनों को पूरी तरह खत्म करना संभव नहीं था क्योंकि इन्हें समय-समय पर संविधान के अनुरूप संशोधित किया गया था।
प्रचार बनाम सच्चाई
- संविधान लागू होते ही ब्रिटिशकालीन असंवैधानिक कानून निष्प्रभावी हो गए।
- पुराने कानूनों को खत्म करने की प्रक्रिया कोई नई नहीं है, यह दशकों से चल रही है।
- ‘ड्रामेटिक परफॉर्मेंस एक्ट’ जैसी व्यवस्थाएँ पहले से निष्क्रिय थीं, उन्हें हटाना कोई ऐतिहासिक सुधार नहीं है।
- संसद और न्यायपालिका ने समय-समय पर असंवैधानिक कानूनों को संशोधित या समाप्त किया है।
इसलिए, यह दावा कि “ब्रिटिशकालीन काले कानून आज तक लागू थे और मोदी सरकार ने पहली बार इन्हें खत्म किया”, ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर पूरी तरह सही नहीं कहा जा सकता।
यह जरूरी है कि कानूनों के सुधार को राजनीतिक प्रचार से हटकर, वास्तविक कानूनी परिप्रेक्ष्य में देखा जाए।